श्री दतोपंत ठेंगडी जी |
इस लेख की मूल भावना स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पुस्तक ‘तीसरा विकल्प’ से ली गई हैं
स्वदेशी क्या है ?
स्वदेशी शब्द वर्तमान में
सर्वप्रचलित हो गया है। यह केवल आर्थिक आंदोलन नही अपितु देश के आर्थिक पुर्ननिर्माण का साधन है। स्वदेशी का उदेश्य केवल आर्थिक विकास और राजनीतिक
स्वतंत्रता नहीं अपितु राष्ट्रीय चेतना का भाव इसमें समाहित है। स्वदेशी आर्थिक
साम्राज्यवाद पर आधारित विश्व की नई व्यवस्था के खिलाफ एक आवाज़ है।
स्वदेशी का संबंध केवल
वस्तुओं और सेवाओं के प्रयोग से न होकर राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता पाने तथा राष्ट्रीय
संप्रभुता की रक्षा करने हेतु बराबरी पर आधारित अतंराष्ट्रीय सहकारिता की भावना से
है। यह स्वदेशी की भावना ही थी जिसके कारण ब्रिटिश लोगों ने अपने राष्ट्र प्रमुख
को जर्मनी में बनी मर्सिडिज बेन्ज जैसी विलासिता पूर्ण कार खरीदने से रोका था। जब
किसी भारतीय पत्रकार ने हो-ची-मिन्ह से प्रशन किया कि कमज़ोर कपड़े से बनी और फट
चुकी पेन्ट क्यों पहनते हो तो मिन्ह ने जवाब दिया था कि उनका देश वियतनाम इतना ही
खर्च कर सकता है। जब अमेरिका ने जापान पर कैलिफोर्निया के संतरों के लिए बाजार
उपलब्ध कराने के लिए दबाव डाला तो जापानी खरीददारों ने एक भी संतरा नहीं खरीदा और
इस तरह अमरीकी दबाव की नीति को हास्यस्पद बना दिया। भिन्न-भिन्न देशों के ये
उदाहरण स्वदेशी की भावना को ही दर्षाते है। स्वदेशी केवल भौतिक वस्तुओं से जुड़ा
आर्थिक मामला भर नहीं है बल्कि राष्ट्रीय जीवन को समेटने वाली व्यापक विचारधारा
है।
स्वदेशी की भावना
राष्ट्रभक्ति की भावना की बाह्य और व्यवहारिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्रवाद या
राष्ट्रभक्ति को अलगाव नहीं माना जा सकता क्योंकि भारतीय संस्कृति की एकात्म
मानववादी परम्परा अंतराष्ट्रीयता को भी राष्ट्रवाद का ही अधिक व्यापक और विकसित
रूप मानती है। देश भक्त कभी अंतराष्ट्रीयवाद के विरोधी नही होते। राष्ट्रीय आत्म
निर्भरता (स्वदेशी) की उनकी दलील अतंराष्ट्रीय सहयोग का विरोध नहीं करती परन्तु
शर्त यह है कि सहयोग समता पर आधारित है तथा हर देश एक दूसरे के राष्ट्रीय
स्वाभिमान का आदर करें।
क्या केवल पश्च्मिकरण ही आधुनिकीकरण है ?
स्वदेशी के विचारक यह
मानने को तैयार नहीं है कि केवल पस्चिम का प्रतिमान ही वैश्विक प्रगति और विकास का आदर्श है और दुनिया के सभी लोग उसका अनुसरण करें। वास्तव में हर देश की अपनी
संस्कृति होती है। हर देश की प्रगति और विकास का आर्दश उसकी अपनी सांस्कृतिक
अनुरूपता से हो। केवल पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण नहीं है।
स्वदेशी का विचार दुनिया
के सभी देशों की विविध संस्कृतियों और राष्ट्रीय पहचान को मिटाने की पश्चिमी चाल
का विरोध करता है। किसी भी ताकतवर देश की अधिनायकवादी नीतियों को ‘पवित्र सिदान्त ’ मान लेना तो मष्तिष्क का दिवालियापन ही है। जो अमरीका कभी अपनी
अधिनायकवादी नीतियों को लेकर दूसर देशों पर "सुपर-301" अधिनियम के तहत प्रतिबंध लगाकर अपने घरेलू उधोगों को
सरंक्षण प्रदान करता था वही अमेरिका आज चीन के साथ बढ़ता व्यापार घाटा देखकर
बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के मामले में एक-दूसरे के सामने आ गये है।
वास्तव मे वैश्वीकरण कोई
पवित्र विचार नहीं है। बल्कि अपना ‘सरपल्स’ दूसरे देशों पर थोपने के विकसित देशों के तौर तरीके थे जिसके विनाशकारी परिणाम आज उदारीकरण के 25 सालों के बाद भारत में भी दिखाई दे रहे है। सरकारें
एफ.डी.आई के नशे में है। देश ‘असेबलिंग हब’ बन कर रह गया है। शेयर बाजार उफन रहा
है। रोजगार को लेकर हा-हा कार मचा हुआ है। ‘रोजगार विहिन विकास’ की अर्थव्यवस्था
बेरोजगारों का पेट नहीं भर सकती। उदारीकरण के इन 25 वर्षो के बाद क्या हम कह सकते है कि वर्तमान विश्व व्यापार
व्यवस्था प्रतिस्र्पधा पर आधारित है। क्या राष्ट्र विशेष की सरकारें घरेलू नीतियों
में परिवर्तन कर अतंराष्ट्रीय व्यापारिक परिस्थितियों को प्रभावित नहीं करती है।
एक विचारणीय प्रशन यह भी है कि विकास व तकनीक के मामलों में विश्व के सभी देशों में इतनी असमानता है कि एक स्वस्थ व्यापार प्रतिस्र्पधा की कल्पना भी नहीं की जा
सकती। इसी का परिणाम है कि विकासशील देशों के लघु और मझौले उद्योग चौपट हो रहे है।
हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बाज़ार मात्र बनकर रह गये है।
कभी अमेरिका का उदारीकरण
विष्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोश के पीछे छुपकर आया था। गैट और विश्व व्यापार संगठन भी उसके ही हथियार थे जो विश्व मे उदारीकरण के बीज बो रहे थे जिसकी
फसल बाद में अमेरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ काट सके। लेकिन आज विश्व व्यापार
व्यवस्था करवट ले चुकी है। आज चीन अपनी अनैतिक वितिय नीतियों के कारण विश्व व्यापार व्यवस्था में बहुत आगे निकल गया है तथा विश्व का विनिर्माण हब बन गया है।
इसीलिए दुनिया के सभी बाजारों पर अपने वर्चस्व के लिए "ओबोर" पर भी कार्य शुरू कर
दिया है। अमेरिका तथा विश्व के अन्य देशों में चीन के कारण घटते रोजगार स्थानीय
सरकारों के लिए चिन्ता का कारण बन चुका है। आज पस्चिम के उन विकसित देशों में
घरेलु उद्योगों को सरंक्षण देने व स्वदेशी की मांग उठ रही है। जो कभी वैश्वीकरण और
उदारीकरण के झड़ाबरदार होते थे।
चीन की चुनौती और भारत की स्थिति
वर्तमान में चीन व्यापार
नहीं अपितु आर्थिक युद्ध लड़ रहा है। भारत के संदर्भ में हमारे नीति निर्माताओं को
एक बार फिर वर्तमान आर्थिक व्यवस्था पर विचार करना होगा क्योंकि चीन की अधिकतर
कंपनियाँ वहाँ की सरकार द्वारा नियंत्रित है। भारत में एफ.डी.आई. के नाम पर व कम
मूल्य पर संवेदनशील क्षेत्रों में टेंडर हथिया कर चीनी कम्पनियां देश को आन्तरिक
और बाह्य चुनौतियाँ पेश कर सकती है।
चीन के साथ 1962 से आज तक कहने को तो सीमायें शांत है। पर यह
चीन की बदली हुई रणनीति है। करीब 130 करोड़ जनसंख्या का देश भारत जिसकी ज्यादातर आबादी युवा है वह बिना रोजगार व
विनिर्माण क्षेत्र के आर्थिक गुलामी की तरफ बढ़ रहा है। अगर चीन के साथ भारत का
व्यापार संतुलन देखा जाये तो यह अव्यवहारिक सा लगता है। साल 2015-16 के आकड़ों के अनुसार भारत चीन को सिर्फ 09 अरब डालर का निर्यात करता है बदले में चीन 61.7 अरब डालर का निर्यात भारत को करता है। इसका
सीधा सा अर्थ है कि भारत को प्रतिवर्ष 52 अरब डालर यानि 3550 अरब रुपयों का
व्यापार घाटा होता है। ध्यान देने की बात यह है कि यह व्यापार घाटा उस देश के साथ
है जिससे हमारे संबंध सामान्य नहीं है। जो देष भारत को अस्थिर करने के लिए
पाकिस्तान के आंतकवादी संगठनों को प्रत्यक्ष रूप से मदद करता है। हिन्द महासागर,
अरब सागर व बंगाल की खाड़ी में हमारे पड़ोसी देशों को वित्तिय साम्राज्यवाद के माध्यम से उनकी विदेश नीति और अर्थ-व्यवस्था को
प्रभावित करके वित्तिय ब्लैकमेल के माध्यम से भारत के हितों के खिलाफ खड़ा करता है।
यह आक्रामक वित्तिय
साम्राज्यवाद चिर स्थायी नही है। यह विश्व -व्यवस्था को कुछ भी सकारात्मक नही दे
रहा है। यह वित्तिय रूप से कमज़ोर तथा विकासशील देशों आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ते
कदमों को रोकने वाला है। अगर सारी दुनिया का माल चीन में ही बनेगा तो बाकी दुनिया
के लोगों को रोजगार कहां मिलेगा। बेरोजगारी अपराध की तरफ अग्रसर होती है। इससे
स्थानीय सरकारो के प्रति असंतोष फैलेगा तथा कानून-व्यवस्था चरमरा जायेगी। चीन अपने
वितिय संसाधनों के बल पर अपनी थानेदारी चमकायेगा तथा उसके दुष्परिणाम बाकी दुनिया
को झेलने पड़ेगे।
कोई भी विश्व -व्यवस्था तब
तक चिरस्थायी नही हो सकती जब तक वह बराबरी के नियमों पर आधारित ना हो। वर्तमान में
प्रचलित ‘ग्लोबलाईजेशन’ पर भी यही सिदान्त लागू होता है। आज जब उदारीकरण के 25 वर्ष पूरे हो चुके है। तब हमें इसके परिणामों
के बारे में खुले मन से विचार करना चाहिए तथा उसके निष्कर्षो के आधार पर ही भविष्य
की राह अपनानी चाहिए। ”वसुधैव कुटुम्बकम“ की भावना से प्रेरित हमारा भारत देश विश्व को ऐसी व्यवस्था के लिए मार्ग-दर्शन कर सकता है जिसमें सब देशों के व्यापार
रोजगार और उनके अधिकारों की रक्षा हो सके। एक-दूसरे की राष्ट्रीय संप्रभुता का आदर
करने की भावना के साथ अंतराष्ट्रीय सहकारिता की भावना स्वदेशी का अंतिम लक्ष्य है।
स्वदेशी के दृष्टिकोण को संकीर्ण कहकर दरकिनार नहीं किया जा सकता।
दुलीचंद कालीरमन
दुलीचंद कालीरमन
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